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बेपनाह मुहब्बत की सजा पाए बैठे हैं,
हासिल न हुआ कुछ भी,
अपना सब कुछ लुटाए बैठे हैं..
निगाहें खोज रही थी जिसे वो कभी अपने थे ही नहीं,
सच मान रहे थे जिसे वो कभी हकीकत थे ही नहीं,
कभी अपनों की बात माना नहीं इसीलिए आज जख्म खाए बैठे है,
बेपनाह मुहब्बत की सजा पाए बैठे हैं..
न मेरी मुहब्बत का कभी शमा जला न दिल की नगरी कभी रोशन हुई,
वफ़ा को खोजने निकलता था मै मुलाकात हमेशा बेवफ़ा से हुई,
कभी अपनों की बात माना नहीं इसीलिए आज अरमानो के दिए बुझाए बैठे है,
बेपनाह मुहब्बत की सजा पाए बैठे हैं..
मुहब्बत ने जब छोड़ा मुझे निगाहें मेरी रोती रही,
तन्हाई ने जब सताया मुझे जान मेरी जाती रही,
कभी अपनों की बात माना नहीं इसीलिए आज सर झुकाए बैठे है,
बेपनाह मुहब्बत की सजा पाए बैठे हैं,
हासिल न हुआ कुछ भी,
“आकाश ” सब कुछ लुटाए बैठे हैं..
मुझे मेरी ये ग़ज़ल बहुत पसंद है क्योंकि शायद मेरी बातों को शब्दों ने कुछ हद तक बयां किया है. आशा करता हूँ की आपको मेरी ये ग़ज़ल पसंद आई होगी.बहुत जल्द अपनी एक नयी ग़ज़ल के साथ फिर आऊंगा..
आपका
आकाश तिवारी
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