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यह रचना मैंने पिछले वर्ष आँखों देखी एक मार्मिक दृश्य पर लिखा था..इस वर्ष होली तो नही मनाया परन्तु सोचा इस रचना को आपसब से पुनः साझा करूँ..
लोगों से गले मिलना अबीर-गुलाल फेकना रंग डालना..तरह तरह के गानों पर नाचना बहुत मस्ती हो रही थी..मगर कोई ऐसा भी था जो इनसब मस्तियों से दूर था….२० तारीख को मुहल्ले के हम सभी दोस्त बहुत ख़ुशी -ख़ुशी होली मना रहे थे ….हम लोग होली खेलते खेलते अपने एरिया की एक गरीब बस्ती की ओर गए जहा खड़े बच्चे हमको और बहुत से लोगों को देखकर अपनी माँ से शायद यही कह रहे थे….
सबकी ये होली है माँ हमारी होली?
सब खेल रहे है रंगों से हम क्यों दूर खड़े है,
आज हमारी थाली में क्यों सूखे अन्न पड़े है.
क्या हमने कोई गलती की है या इंसान नहीं है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
आपस में लोगों को आज हमने हसते देखा है,
घर-घर में बच्चे बूढों को आज हमने सजते देखा है.
फिर क्यों आज हमारे तन पर कपड़े फटे पड़े है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
बचपन से ही हमने ऐसा सबकुछ होते देखा है,
दिवाली में जले अरमानो को होली में बुझते देखा है.
क्यों हम पर ही दुनिया के सारे दर्द पड़े है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
रंगों के इस त्यौहार में हम ही फीके-फीके है,
दौलत की इस दुनिया में हम सबके पीछे-पीछे है.
क्यों हर खुशियों की संध्या पर हम ही रो पड़े है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
उम्मीद करता हूँ आप मेरी कविता के माध्यम से गरीबों का दर्द समझ सकेंगे.
आकाश तिवारी
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