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सब खेल रहे है रंगों से हम क्यों दूर खड़े है,
आज हमारी थाली में क्यों सूखे अन्न पड़े है.
क्या हमने कोई गलती की है या इंसान नहीं है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
आपस में लोगों को आज हमने हसते देखा है,
घर-घर में बच्चे बूढों को आज हमने सजते देखा है.
फिर क्यों आज हमारे तन पर कपड़े फटे पड़े है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
बचपन से ही हमने ऐसा सबकुछ होते देखा है,
दिवाली में जले अरमानो को होली में बुझते देखा है.
क्यों हम पर ही दुनिया के सारे दर्द पड़े है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
रंगों के इस त्यौहार में हम ही फीके-फीके है,
दौलत की इस दुनिया में हम सबके पीछे-पीछे है.
क्यों हर खुशियों की संध्या पर हम ही रो पड़े है,
शायद इस दुनिया में हम अपराधी बड़े है..
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यह रचना मैंने आँखों देखी एक मार्मिक दृश्य पर लिखा था और पूरी कोशिश की की ज्यादा से ज्यादा लोगों तक मेरी बात पहुंचे मगर अफ़सोस हर बार-लगातार मै वही दॄश्य देखता हूँ जो मै होश सँभालने के बाद से देखता आ रहा हूँ और यही दॄश्य पिछले वर्ष दिल्ली में भी होली के दौरान देखा और इस वर्ष अपने उसी चिर-परिचित बस्ती में फिर से वही दॄश्य देख मन व्याकुल हो उठा और सोचा इस रचना को आपसब से पुनः साझा करूँ..शायद कांटेस्ट के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा लोगों तक मेरी बात पहुंचे…
आज फिर हमेशा की तरह लोगों से गले मिलना अबीर-गुलाल फेकना रंग डालना..तरह तरह के गानों पर नाचना बहुत मस्ती हो रही थी..मगर कोई ऐसा भी था जो इनसब मस्तियों से दूर था….आज मुहल्ले के हम सभी दोस्त बहुत ख़ुशी -ख़ुशी होली मना रहे थे साथ में मै भी था मगर मेरा मन कही न कही उस जगह पर नहीं था जहाँ सब थे जहा हर्षोल्लास था जहाँ रंग,भंग और वो सभी चीजे जिससे एक साधारण इंसान सारे ग़म को भूल सकता है.. और अंत में मै फिर उसी बस्ती की तरफ गया जहाँ जाने के बाद सारे रंग फीके पड़ जाते है ..पानी के फुहारे आग उगलने लगते है…वही बस्ती जहाँ के लोगों को पता तो है होली एक त्यौहार है जिसमे ढेर सारी खुशियां मनायी जाती है सैकड़ों पकवान बनते है नए परिधान पहने जाते है
..मगर वो मजबूर होते है और अपनी खुशियों का गला हर बार घोंट देते है और अपने बच्चों को अगले वर्ष की झूठी दिलासा देकर वही खाना खिलाकर सुला देते हैं जिसे हम कचड़े में फेक देते है
अफ़सोस होता है जब ये बातें कानों में गूंजती है की भारत में अमीरों की संख्या बहुत है..भारत में मीडिया स्वतन्त्र है..हाँ ये सच है भारत अमीरों का देश भी है और मीडिया स्वतन्त्र भी तभी तो अमीरों की होली शानदार होती है जिसे हमारे देश की स्वतन्त्र मीडिया कवर करती है..
मगर कभी ये अमीर एक बस्ती की होली का खर्च नहीं उठा सकते और मीडिया इस सच को दुनिया से रूबरू नहीं कराती …एक तरफ जब हम होली के रंग में सराबोर रहते है तो दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी है
जो अपने घर में पकने वाली दाल में रंग भी नहीं भर सकते..धिक्कार है मुझे ऐसे समाज ऐसे लोगों
पर और ऐसे मीडिया पर जिन्हे इनका दुःख नहीं दीखता इनकी तकलीफ नहीं दिखती..मैंने बहुत कोशिश की की अपने मोहल्ले के कुछ लोगों को इकठ्ठा करूँ और त्यौहार पर इस बस्ती के लिए कुछ करूं मगर अफ़सोस ऐसा हो न सका और फिर मैंने अपने परिवार में अपने बड़े भाई और माँ से अपने दुःख को व्यक्त किया और अगले दिन ही मैंने 3 गुल्लक लाये जिसमे हम तीनो अपनी मर्जी से कुछ न कुछ रुपये रोज डालते और फिर आने वाली दिवाली और होली पर हम 3 गरीब परिवार को कपडे और त्यौहार के सारे सामान भेंट स्वरूप देते और ढेरो आशीर्वाद मुफ्त में पाते..
जो काम मैंने अपने परिवार के साथ मिलकर किया क्या वही काम हम सब मिलकर नही कर सकते जरा सोचिये कितना अच्छा लगेगा जब सब के सब चाहे वो अमीर हो मध्यम वर्गीय हो या गरीब सब हर त्यौहार पर खुशिया मनाएंगे…..
क्या जो काम मैंने अपने परिवार के साथ मिलकर किया क्या वही काम हम सब मिलकर नही कर सकते जरा सोचिये कितना अच्छा लगेगा जब सब के सब चाहे वो अमीर हो मध्यम वर्गीय हो या गरीब सब हर त्यौहार पर खुशिया मनाएंगे…..
अगर हम सब मिलकर अगर एक भी गरीब परिवार की त्यौहार की जिम्मेदरी उठायें तो कभी फिर ऐसी कविता कोई रचनाकार नहीं पेश कर पायेगा जो मैंने आज की..
मै अपने सभी पाठकों से अनुरोध करता हूँ की इस दिशा में जरुर कुछ करें…बात दिल से निकली है आप सब से अनुरोध है जरा दूर तक ले जाना….
उम्मीद करता हूँ आप मेरी कविता के माध्यम से गरीबों का दर्द समझ सकेंगे.
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